वेदों के चार महावाक्य...
१) प्रज्ञानं ब्रह्म - ऋगवेद प्रज्ञा रूप (उपाधिवाला) आत्मा ब्रह्म है... २) अहम् ब्रह्मास्मि - यजुर्वेद मैं ब्रह्म हू... ३) तत्वमसि [तत त्वम असि] - सामवेद वह पूर्ण ब्रह्म तू है... ४) अयं आत्म्ब्रह्म - अथर्व-वेद यह (सर्वानुभाव सिद्ध अपरोक्ष) आत्मा ब्रह्म है... पहला महावाक्य ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद में उद्धृत किया गया है , जिसे ' लक्षणा वाक्य ' भी कहा गया है। इसका संबंध ब्रह्म की चैतन्यता से है , क्योंकि इसमें ब्रह्म को चैतन्य रूप में रखा गया है। दूसरा महावाक्य यजुर्वेद के वृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है। इसकी खासियत यह है कि इसमें यह जताने की कोशिश की गई है कि हम सभी ब्रह्म (अहं ब्रह्मास्मि) हैं। इसे ' अनुभव वाक्य ' भी कहते हैं और इसके मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के जरिए हासिल किया जा सकता है। तीसरा महावाक्य सामवेद के छांदोग्य उपनिषद से लिया गया है। इस महावाक्य ' तत त्वम असि ' का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं , आप भी ब्रह्म है , बल्कि विश्व की हर वस्तु ही ब्रह्म है। इसे उपदेश वाक्य भी कहा जाता है। यह उपदेश वाक्य इसलिए भी कहा जाता है , क्योंकि इ